बुधवार, 13 अक्तूबर 2010

मंदिर में ....---

मंदिर में जलते हुए उस दीप सा मै हु तुम्हारा

जिसमे बाती मेरे देह की और तेल तेरी अश्रु धारा

मै जला तिल -तिल सदा करता रहा पथ पर उजाला

हो गई जब शाम घबरा कर पथिक ने तब पुकारा

घिर गई कितनी घटाए आंधियो ने कहर ढाया

मै तिमिर का वक्च चीरे ,अश्रु पी कर ,मुस्कराया .

सिंधूरी पत्ते सा

रंग गया है आसमान सिंधूरी पत्ते सा
आदमी है उदास बेवा के मत्थे सा


रीत गया दीप मगर बाती अध् जली है

राह अभी चलने को शेष बहुत परी है

सो गया है चित्रकार आसमान रंग कर के

आदमी की मुस्कान रंगने को परी है

शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

भारत माँ

भारत माँ की इस धरती पर
माँ अब भी आसू पीती है
अपनी घांघर को फाढ -फाढ
अपना आँचल वह सीत़ी है

बच्चे के प्याले में दूध नहीं
चौके में कलसा खाली है
बाबु के हातो में फिर कैसे
प्याला शराब का होता है

गंगा माँ की इस धरती पर
पानी तक मैला मिलता है
जब पीने का पानी साफ़ नहीं
कैसे मधुशाला खुलता है

माँ के स्तन में दूध नहीं
बच्चे का बचपन भूका है
जिस देश का बचपन भूका है
उस देश का योवन क्या होगा